महाराणा प्रताप की जीवनी और इतिहास:
- AMAN Chauhan
- Sep 13, 2021
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परम प्रतापी, बलवान, परम पराक्रमी, मेधावी, वीरतापूर्वक क्रूरतम प्रहारों को सहने की अद्भुत क्षमता की छवि, सिसोदिया वंश के सूर्य, भारत की भूमि का आनंद महाराणा प्रताप का जन्म हुआ 09 मई 1540 मेवाड़ प्रांत में निधन हो गया। दुनिया फिर भी महाराणा प्रताप की वीरता, युद्ध क्षमता, राक्षसी शक्ति के धनी और उनके सबसे अच्छे दोस्त चेतक को सलाम करती है, जो उनकी लड़ाई की प्रतिभा में प्रतिभाशाली हैं। संपूर्ण मुगल सल्तनत और मुगल बादशाह अकबर भी महाराणा प्रताप की वीरता के प्रशंसक रहे हैं। और आज का आधुनिक भारत ( Adhunik Bharat Ka Itihas )भी महाराणा प्रताप को बहुत याद करता है।

प्रारंभिक अस्तित्व:
महाराणा प्रताप कुम्भलगढ़ महल में पैदा हुए। महाराणा प्रताप की मां का नाम जवंताबाई है, जो पाली के सोनागारा अखैरराज की बेटी बनीं। महाराणा प्रताप को उनके प्रारंभिक वर्षों में कीका के रूप में जाना जाता था। महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक गोगुन्दा में हुआ। प्रारंभिक वर्षों से, महाराणा प्रताप साहसी, साहसी, स्वाभिमानी और स्वतंत्रता-प्रेमी में बदल गए। 1572 में जैसे ही वह मेवाड़ की गद्दी पर बैठा, उसे असाधारण कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, लेकिन धीरज और बहादुरी के साथ उसने हर विपरीत परिस्थिति का सामना किया।
उन्होंने हल्दी घाटी में मजबूत मुगल सेना के साथ भीषण संघर्ष किया। उन्होंने वहां जो वीरता दिखाई वह भारतीय अभिलेखों में अद्वितीय है, उन्होंने अपने पूर्वजों के सम्मान और सम्मान को शामिल किया और कसम खाई कि जब तक उनका राज्य मुक्त नहीं हो जाता, तब तक उन्हें देश की खुशी का अनुभव नहीं होगा। तब से उसने फर्श पर झपकी लेना शुरू कर दिया, वह संघर्ष करते हुए अरावली के जंगलों में भटकता रहा, हालाँकि उसे अब मुगल सम्राट की अधीनता नहीं मिली। उन्होंने अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए अपना अस्तित्व समर्पित कर दिया।
हल्दीघाटी का युद्ध भारत के अभिलेखों में एक प्रमुख घटना है। यह युद्ध लगभग १८ जून १५७६ को लगभग ४ घंटे तक चला, जिसमें मेवाड़ और मुगलों के बीच भयंकर युद्ध हुआ। केवल मुस्लिम सरदार हकीम खान सूरी की सहायता से महाराणा प्रताप की सेना का नेतृत्व किया गया और मुगल सेना का नेतृत्व मानसिंह और आसफ खान ने किया। इस युद्ध में कुल २०,००० महारान प्रताप के राजपूतों को अकबर की कुल ८०००० मुगल सेना का सामना करना पड़ा, जो एक अनूठा तत्व है।
अनेक कठिनाइयों/संकटों से गुजरने के बाद भी महाराणा प्रताप ने आत्मसमर्पण नहीं किया और अपनी पराक्रम की पुष्टि की, यही कारण है कि आज उनका नाम इतिहास के पन्नों पर चमक रहा है। कुछ इतिहासकार इस बात को सच मानते हैं कि हल्दीघाटी के युद्ध में कोई जीत नहीं हुई है, लेकिन देखा जाए तो महाराणा प्रताप को ही मिली है। महाराणा प्रताप की सेना ने अपनी छोटी सेना को छोटा न मानकर अपने कठिन परिश्रम और संकल्प से अकबर की बड़ी सेना के छक्कों को मुक्त कराया और उन पर पीछे हटने का दबाव बनाया।
घोड़ा चेतक:
महाराणा प्रताप की वीरता के साथ-साथ उनके घोड़े चेतक की वीरता भी भारत ( Bharat Ka Itihas ) के साथ -साथ विश्व में विख्यात है। चेतक पूरी तरह से चतुर और बहादुर घोड़ा बन गया जिसने अपनी जान दांव पर लगाकर 26 फीट गहरी नदी से छलांग लगाकर महाराणा प्रताप को बचाया था। हल्दीघाटी में आज भी चेतक का मंदिर बना हुआ है।
राजस्थान के कई घराने अकबर के बल पर दम तोड़ चुके थे, लेकिन महाराणा प्रताप ने अपने वंश को बचाने के लिए संघर्ष किया और अब अकबर के सामने आत्मसमर्पण नहीं किया। घास और घास की रोटियों के भीतर जंगली इलाके से जंगली इलाके में भटकना। विकट परिस्थितियों में उनके साथ रहने, अपनी पत्नी और शिशु को अपने साथ रखने के बाद भी उन्होंने कभी धीरज नहीं खोया। धन की कमी के कारण नौसेना के गिरते मनोबल को पुनर्जीवित करने के लिए दानवीर भामाशाह ने अपना पूरा खजाना लगा दिया। फिर भी, महाराणा प्रताप ने कहा कि नौसेना की इच्छा के अलावा, मुझे अब आपके खजाने का एक पैसा भी नहीं चाहिए। अकबर के अनुसार:- महाराणा प्रताप के पास सीमित संपत्ति थी, लेकिन फिर भी वह अब न झुके, न डरे।
हल्दीघाटी के युद्ध के बाद महाराणा प्रताप का समय पहाड़ियों और जंगलों में बीता। उसने अकबर को आमतौर पर अपनी पर्वतीय युद्ध नीति के माध्यम से हराया। हालांकि महाराणा प्रताप को जंगलों और पहाड़ियों में रहते हुए कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ा, लेकिन उन्होंने अपने आदर्शों को नहीं छोड़ा। महाराणा प्रताप के मजबूत इरादों ने अकबर के सेनापतियों के सभी प्रयासों को विफल कर दिया। उनकी हठ और वीरता का ही असर हुआ कि 30 साल की लगातार कोशिशों के बाद भी अकबर महाराणा प्रताप को बंदी नहीं बना सके। महाराणा प्रताप का पसंदीदा घोड़ा चेतक बन गया, जिसने अपनी शेष सांस तक उसकी पकड़ का समर्थन किया।
महाराणा प्रताप मौत:
आखिरकार, महाराणा प्रताप 19 जनवरी 1597 को चावंड में देखने की अवधि के लिए हुई दुर्घटनाओं के कारण स्वर्ग चले गए।
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