भारत में हुए किसान आन्दोलन : जिन्होंने लायी एक नई क्रांति
- AMAN Chauhan
- Sep 30, 2021
- 2 min read
इन संघर्षों में किसान अपनी जरूरतों के लिए सीधे लड़ने वाले प्राथमिक दबाव के रूप में उभरे। १८५८ और १९१४ के बीच की अवधि में आंदोलन १९१४ के बाद की शिकायतों के विपरीत स्थानीयकृत, असंबद्ध और विशिष्ट शिकायतों तक सीमित थे।ये आधुनिक भारत ( Adhunik Bharat Ka Itihas ) के किसानों के मुख्य आन्दोलन थे।
किसान आन्दोलन के कारण:

किसान अत्याचार: जमींदारी क्षेत्रों में किसानों को अत्यधिक लगान, अवैध कराधान, मनमानी बेदखली और अवैतनिक परिश्रम का सामना करना पड़ा। इसके अलावा अधिकारियों ने जमीन की भारी बिक्री भी की।
भारतीय उद्योगों को बड़े पैमाने पर नुकसान: ब्रिटिश वित्तीय दिशानिर्देशों के परिणामस्वरूप पारंपरिक हस्तशिल्प और अन्य छोटे उद्योगों का दमन हुआ, जिससे स्वामित्व में बदलाव आया और किसानों पर कर्ज और कृषि भूमि का बोझ और किसानों की गरीबी में सुधार हुआ। बढ़ा हुआ।
प्रतिकूल नीतियां: ब्रिटिश अधिकारियों के आर्थिक नियम जमींदारों और साहूकारों के अभाव में थे और किसानों का शोषण करते थे। इस अन्याय के विरुद्ध अनेक गतिविधियों पर किसानों ने विद्रोह भी किया।
किसान संगठनों का उदय:
1920 और 1940 के बीच कई किसान संगठन उभरे।
1936 में स्थापित बिहार प्रांतीय किसान सभा (1929) और अखिल भारतीय किसान सभा (AIKS) प्राथमिक किसान कंपनियां थीं।
12 महीने 1936 में कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में सहजानंद की अध्यक्षता में अखिल भारतीय किसान सभा का गठन हुआ।
बाद में इसने एक किसान घोषणापत्र जारी किया जिसमें सभी काश्तकारों के लिए जमींदारी और अधिभोग अधिकारों के उन्मूलन को परेशान किया गया।
मुख्य किसान आन्दोलन
(1 .) चंपारण का सत्याग्रह
(2 .) खेड़ा सत्याग्रह आंदोलन
(3 .) संयुक्त प्रदेश में किसान आंदोलन
(4 .) बरदौली सत्याग्रह आंदोलन
(5 ) तिभागा किसान आंदोलन
(6 .) तेलंगाना किसान आंदोलन
(7 ) बर्ली किसान आंदोलन
(8 ) राजस्थान में किसान आंदोलन
19वीं सदी के दूसरे छमाही और 20वीं सदी के पहले 1/2 में किसान आंदोलन भारतीय अभिलेखों में एक महत्वपूर्ण घटना है। भारत में ब्रिटिश शासन के स्थापित आदेश के साथ, भारत में किसान आंदोलन शुरू हुए जो भारत की स्वतंत्रता तक जारी रहे। प्रारंभ में, किसानों के गुस्से ने साहूकारों और जमींदारों से बदला लेने के लिए एक आंदोलन का रूप ले लिया, लेकिन बाद में उनके आंदोलन और भी बड़े और हिंसक हो गए। भारत सरकार, प्रांतीय सरकारों, राजाओं और जागीरदारों ने किसानों की चालों पर लाठियों और गोलियों के इस्तेमाल से परहेज नहीं किया। इन चालों के कारण, प्रजा और शासकों के बीच परिवार के सदस्य हर समय खराब होते रहे। उनके बीच किसी भी तरह की सहमति का उठना अब व्यवहार्य नहीं रह गया था। किसानों ने, जो अब पूरी तरह से संगठित नहीं थे, जोरदार कार्रवाई की। कांग्रेस ने अब किसानों का मार्गदर्शन नहीं किया। कम्युनिस्टों ने किसानों का समर्थन किया, लेकिन वे अधिकारियों की गोलियों से किसानों को मारे जाने से नहीं बचा सके। हालांकि भारत की स्वतंत्रता संग्राम में किसान आंदोलनों की स्थिति को हमेशा महत्व नहीं दिया जाता है लेकिन यह हमेशा उचित नहीं होता है। हकीकत यह है कि क्रांतिकारियों, किसानों और लोगों ने भी अपने खून से आजादी के पौधे को सींचा था।
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